Sunday, December 16, 2012

रमेश तैलंग : कद्र की कद्र करने वाले हों.

















कद्र की कद्र करने वाले हों.
तो अंधेरों में भी उजाले हों.

ऐसी दुनिया का क्या करें हम 
आंख पर पर्दे, मुंह पर ताले हों.

झील का दुःख भला वो क्या जाने,
जिसने पत्थर सदा उछाले हों.

यूं तो मुमकिन नहीं लगे मुझको
कत्लगाहों में भी शिवाले हों.

पर कहीं होंगे लोग जो अब भी
डूबती कश्तियाँ संभाले हों.

- रमेश तैलंग






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