Tuesday, December 18, 2012

रंजन विशद : बदला है सदा मौसम





















बदला है सदा मौसम बदली न कहानी है।
हर बार मोहब्बत ने कुछ करने की ठानी है।

दौलत की अदालत में इन्साफ भला कैसा,
उल्फ़त के परिन्दों को बस जान गवानी है।

चाहे तो कोई देखे हर चाँद के माथे पर,
बेदर्द ज़माने की ठोकर की निशानी है।

तेबर ये तरंगों के क्या देखेगा वो जिनकी,
तूफाँ से उलझने की आदत ही पुरानी है।

उम्मीदों के पंखों से नभ नापने वालों की,
हर शाम नशीली है, हर सुबह सुहानी है।

कुछ और सितम दुनिया करती है तो करने दो,
हमको तो मोहब्बत की बस जोत जलानी है।

रंजन विशद 



नहीं चिन्ता अभी मैं हूँ शुरु के पायदानो पर






नहीं चिन्ता अभी मैं हूँ शुरु के पायदानो पर।
बहुत जल्दी नज़र आयेंगे हम ऊँची उड़ानो पर।।

हमें देखों न यों कमतर नज़र से ऐ जहाँ वालों!
हमारी सुर्खिया होंगी तुम्हारे आसमानो पर।

अगर चाहों तो करके देख लो तुलना किसी से भी।
बहुत भारी पड़ेगे हम वफ़ा के इम्तिहानो पर।।

घटाओ तुम तो ज़र के घर पे ही जाकर बरसती हो।
कभी तो आके बरसो धूप में तपते किसानो पर।

नज़र नापाक दुश्मन की टिकी है अपनी सीमा पर।
कसे रहना जवानो तीर तुम अपनी कमानो पर।।

ज़माने के थपेड़ों से उबरना चाहते हो तो,
कभी विश्वास मत करना ‘विशद’ झूठे फसानो पर।।

रंजन विशद 

शर्म के भाव बहुत मन्दे हैं




















कौन सी नस्ल के यह वन्दे हैं।
जिनके आमाल इतने गन्दे हैं।।

ज़िन्दगी भर नहीं सुलझ पाये,
मोह माया के ऐसे फन्दे  हैं।

ख़ानकाहों की चमक के पीछे,
अहले-दौलत के स्याह चन्दे  हैं।

लक्ष्य तो ख़ुद व खु़द बता देंगे,
किसकी बन्दूक किसके कन्धे हैं।

कैसा माहौल होगा जिस घर में,
बाप बहरे हों बेटे अन्धे  हैं।

ख़ुली सड़कों पे डोलती है ‘विशद’,
शर्म के भाव बहुत मन्दे  हैं।

रंजन विशद 



हजारों जुल्म लोग सहते हैं











हजारों जुल्म लोग सहते हैं।
फिर भी मुख से न कुछ भी कहते हैं

उन्हें डर कैसा छत दरकने का,
जो खुले आसमाँ में रहते हैं।

क्यों करें बात रुकने झुकने की,
हम तो लहरों के संग बहते हैं।

दिल की बस्ती में अब तो रोज़ाना,
उसूलों के मकान ढहते हैं।

बर्फ बनकर कभी पिघलते है,
और कभी शोला बनके दहते हैं।

रंजन विशद 

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