क्या उसकी राह देखना वो जो गया, गया ।
हमसे न जाने कितनी दफा ये कहा गया।
उकसा गया था कोई सियासत की आंधियां,
उढ़कर किसी की आँख में तिनका चला गया
जिसके लिए थे जाम शाम सारी रौनकें ,
वो ही हमारी बज्म से प्यासा चला गया ।
ऊंचाइयों से अपने तलक हो गए खफा,
हम पंछियों को शाख का भी आसरा गया।
खामोशियों की कर जो रहा था वकालतें,
आंखों को बोलने का सलीका सिखा गया।
मुस्तफ़ा माहिर पंतनगरी
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