Tuesday, February 5, 2013

अशोक रावत की ग़ज़लें

अमाँ क़ायम नहीं होता


















बढ़े चलिये, अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता
निगाहों का उजाला भी दियों से कम नहीं होता

भरोसा जीतना है तो ये ख़ंजर फैंकने होंगे,
किसी हथियार से अम्नो- अमाँ क़ायम नहीं होता

मनुष्यों की तरह यदि पत्थरों में चेतना होती
कोई पत्थर मनुष्यों की तरह निर्मम नहीं होता

तपस्या त्याग यदि भारत की मिट्टी में नहीं होते
कोई गाँधी नहीं होता, कोई गौतम नहीं होता

ज़माने भर के आँसू उनकी आँखों में रहे तो क्या
हमारे वास्ते दामन तो उनका नम नहीं होता

परिंदों ने नहीं जाँचीं कभी नस्लें दरख्तों की
दरख़्त उनकी नज़र में साल या शीशम नहीं होता

कुछ तो कम होगा अँधेरा 














तय तो करना था सफ़र हमको सवेरों की तरफ़
ले गये लेकिन उजाले ही अँधेरों की तरफ़

मील के कुछ पत्थरों तक ही नहीं ये सिलसिला
मंज़िलों भी हो गयी हैं अब लुटेरों की तरफ़

जो समंदर मछलियों पर जान देता था कभी
वो समंदर हो गया है अब मछेरों की तरफ़

साँप ने काटा जिसे उसकी तरफ़ कोई नहीं
लोग साँपों की तरफ़ हैं या सपेरों की तरफ़

शाम तक रहती थीं जिन पर धूप की ये झालरें
धूप आती ही नहीं अब उन मुडेरों की तरफ़

कुछ तो कम होगा अँधेरा रोज़ कुछ जलती हुई
तीलियाँ जो फ़ेंकता हूँ मैं अँधेरों की तरफ़.


चुप रहूँ ये मश्वरा देगा मुझे



एक दिन मजबूरियाँ अपनी गिना देगा मुझे
जानता हूँ वो कहाँ जाकर दग़ा देगा मुझे

इस तरह ज़ाहिर करेगा मुझ पे अपनी चाहतें
वो ज़माने से ख़फ़ा होगा सज़ा देगा मुझे

वो दिया हूँ मैं जिसे आँधी बुझाएगी ज़रूर
पर यहाँ कोई न कोई फिर जला देगा मुझे

आँधियाँ ले जायेंगी सब कुछ उड़ा कर एक दिन
वक़्त फिर भी चुप रहूँ ये मश्वरा देगा मुझे

सिर्फ़ मुझको हार के डर ही दिखाए जायेंगे
या कि कोई जीत का भी हौसला देगा मुझे

हर क़दम पर ठोकरें हर मोड़ पर मायूसियाँ
ऐ ज़माने और कितनी यातना देगा मुझे

रास्ते की मुश्किलें ही बस गिनाई जायेंगी
या कि कोई मंज़िलों का भी पता देगा मुझे

स्थाई पता: 222, मानस नगर, शाहगंज, आगरा, 282010
ashokdgmce@gmail.com 2. ashokrawat2222@gmail.com
फोन: नोएडा: 09013567499 , आगरा: 09458400433

आशीष दीक्षित : तुम मोहब्बत को छुपाती क्यूं हो













तुम मोहब्बत को छुपाती क्यूं हो

दिल भी है दिल में तमन्ना भी है
कुछ जवानी का तकाज़ा भी है
तुम को अपने पे भरोसा भी है
झेंप कर आंख मिलाती क्यूं हो
तुम मोह्ब्बत को छुपाती क्यूं हो

ज़ुल्म तुम ने कोई ढाया तो नही
किसी को बेवजह सताया तो नही
खून गरीबों का बहाया तो नही
यूं पसीने में नहाती क्यूं हो
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यूं हो

पर्दा है दाग छुपाने के लिये
शर्म है झूठ पे छाने के लिये
इश्क इक गीत है गुनगुनाने के लिये
इस को होंठों में दबाती क्यूं हो

तुम मोहब्बत को छुपाती क्यूं हो

आशीष दीक्षित