Tuesday, December 10, 2013

सिया सचदेव : रिश्तों कि कायनात में सिमटी हुई हूँ मैं







रिश्तों कि कायनात में सिमटी हुई हूँ मैं 
मुद्दत से अपने आप को भूली हुई हूँ मैं 

गो ख़ुशनसीब हूँ मेरे अपनों का साथ हैं 
तन्हाइयों से फिर भी क्यों लिपटी हुई हूँ मैं 

आती है याद आपकी मुझको कभी कभी 
ऐसा नहीं कि आपको भूली हुई हूँ मैं 

उस चाराग़र को ज़ख्म दिखाऊ या चुप रहूँ 
इस कश्मकश में आज भी उलझी हुई हूँ मैं

हूँ फिक्रमंद आज के हालात देख कर
बेटी कि माँ हूँ इस लिए सहमी हुई हूँ मैं

जज़्बात कैसे नज़्म करू अपने शेर में
कब से इसी ख्य़ाल में डूबी हुई हूँ मैं

बेकार ज़िंदगी में ये कैसी ख़लिश सिया
सब कुछ मिला है फिर भी कमी ढूढ़ती हूँ मैं 

















सिया सचदेव 

Thursday, May 2, 2013

कृतज्ञ और नतमस्तक


कृतज्ञ और नतमस्तक


सत्ता का यह स्वभाव नहीं है
कि वह योग्यता को ही
पुरस्कृत करे
बल्कि यह है
कि जिन्हें वह पुरस्कृत करती है
उन्हें योग्य कहती है

अब जो पुरस्कृत होना चाहें
वे चाहे खुद को
और दूसरे पूर्व पुरस्कृतों को
उसके योग्य न मानें
मगर यह मानें
कि योग्यता का निश्चय
सत्ता ही कर सकती है

अंत में योग्य
सिर्फ़ सत्ता रह जाती है
और जो उससे पुरस्कृत हैं
वे अपनी-अपनी योग्यता पर
संदेह करते हुए
सत्ता के प्रति
कृतज्ञ और नतमस्तक होते हैं
कि उसने उन्हें योग्य माना











पंकज चतुर्वेदी 

Monday, April 22, 2013

हवाएँ रुख़ बदलती हैं तो मिलना छोड़ देते हैं














हवाएँ रुख़ बदलती हैं तो मिलना छोड़ देते हैं ,
परिंदे क्या हैं वो जो डरके उड़ना छोड़ देते हैं । 

अगर दुश्मन ज़माना आशियाना ही जला डाले ,
तो ज़िंदा लोग क्या फिर घर बनाना छोड़ देते हैं । 

कभी भी भूलके बच्चों से अपना ग़म नहीं कहना ,
तुम्हारे ख़्वाबों से वो सपने बुनना छोड़ देते हैं । 

समंदर बीच कश्ती में ज़रा सूराख़ हो जाए ,
तो चूहे सबसे पहले वो ठिकाना छोड़ देते हैं । 

न रिश्तों का कोई मतलब न उम्रों की कोई दूरी ,
कई मासूम बचपन में ही हँसना छोड़ देते हैं । 

बुज़ुर्गों ने दिया भरपूर सरमाया शराफ़त का ,
किसी को क्या कहें जब हम ही रखना छोड़ देते हैं । 
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(सुधाकर अदीब )

ख़ामी तुझी में है के ज़माना खराब है




















ख़ामी तुझी में है के ज़माना खराब है
आखिर सभी को तुझसे ये क्यूं इज्तेनाब है

क्यंू ख़्वाहिशों को ज़ीस्त का उनवां बनाए हो
जब जानते हो ज़ीस्त मिसाले हबाब है

क्यूं उसकी कुरबतों से भला रोकते हैं लोग
वह मेरी जागती हुई आंखों का ख्वाब है

अंजाम उसका चाहे रसन हो के दार हो
फनकार है वही जो हकीकत निगार हो

बन जाए फिर तो एक तमाशा ये जि़न्दगी
इन्सां को जि़न्दगी पे अगर इखि़्तयार हो

किस जी से मुस्कुराएगा ’राही’ फिर आदमी
हर लम्हा-ए-हयात अगर दिल पे बार हो








कलाम- राशिद हुसैन ’राही’,
ऐमन जई, जलाल नगर, शाहजहांपुर उ.प्र. 242001
मेबाइल नं. 09369536775

Tuesday, April 9, 2013

इस तरह से रौशनी का साथ हो : मुस्तफ़ा माहिर
















इस तरह से रौशनी का साथ हो 
तेरी मेरी सबकी उजली रात हो 

ज़िन्दगी की राह में हर मोड़ पर 
तुम ही मिल जाओ तो फिर क्या बात हो 

साहिले -दरया पे मुमकिन ये भी है 
इक बड़ी सी तिश्नगी तैनात हो 

दिन थकन अपनी उतारेगा अभी
अच्छा हो जो अपने घर में रात हो

दिल को दे तू लम्स यादों कि अब
सूखे-चटके खेत में बरसात हो

(मुस्तफ़ा माहिर)

Tuesday, February 5, 2013

अशोक रावत की ग़ज़लें

अमाँ क़ायम नहीं होता


















बढ़े चलिये, अँधेरों में ज़ियादा दम नहीं होता
निगाहों का उजाला भी दियों से कम नहीं होता

भरोसा जीतना है तो ये ख़ंजर फैंकने होंगे,
किसी हथियार से अम्नो- अमाँ क़ायम नहीं होता

मनुष्यों की तरह यदि पत्थरों में चेतना होती
कोई पत्थर मनुष्यों की तरह निर्मम नहीं होता

तपस्या त्याग यदि भारत की मिट्टी में नहीं होते
कोई गाँधी नहीं होता, कोई गौतम नहीं होता

ज़माने भर के आँसू उनकी आँखों में रहे तो क्या
हमारे वास्ते दामन तो उनका नम नहीं होता

परिंदों ने नहीं जाँचीं कभी नस्लें दरख्तों की
दरख़्त उनकी नज़र में साल या शीशम नहीं होता

कुछ तो कम होगा अँधेरा 














तय तो करना था सफ़र हमको सवेरों की तरफ़
ले गये लेकिन उजाले ही अँधेरों की तरफ़

मील के कुछ पत्थरों तक ही नहीं ये सिलसिला
मंज़िलों भी हो गयी हैं अब लुटेरों की तरफ़

जो समंदर मछलियों पर जान देता था कभी
वो समंदर हो गया है अब मछेरों की तरफ़

साँप ने काटा जिसे उसकी तरफ़ कोई नहीं
लोग साँपों की तरफ़ हैं या सपेरों की तरफ़

शाम तक रहती थीं जिन पर धूप की ये झालरें
धूप आती ही नहीं अब उन मुडेरों की तरफ़

कुछ तो कम होगा अँधेरा रोज़ कुछ जलती हुई
तीलियाँ जो फ़ेंकता हूँ मैं अँधेरों की तरफ़.


चुप रहूँ ये मश्वरा देगा मुझे



एक दिन मजबूरियाँ अपनी गिना देगा मुझे
जानता हूँ वो कहाँ जाकर दग़ा देगा मुझे

इस तरह ज़ाहिर करेगा मुझ पे अपनी चाहतें
वो ज़माने से ख़फ़ा होगा सज़ा देगा मुझे

वो दिया हूँ मैं जिसे आँधी बुझाएगी ज़रूर
पर यहाँ कोई न कोई फिर जला देगा मुझे

आँधियाँ ले जायेंगी सब कुछ उड़ा कर एक दिन
वक़्त फिर भी चुप रहूँ ये मश्वरा देगा मुझे

सिर्फ़ मुझको हार के डर ही दिखाए जायेंगे
या कि कोई जीत का भी हौसला देगा मुझे

हर क़दम पर ठोकरें हर मोड़ पर मायूसियाँ
ऐ ज़माने और कितनी यातना देगा मुझे

रास्ते की मुश्किलें ही बस गिनाई जायेंगी
या कि कोई मंज़िलों का भी पता देगा मुझे

स्थाई पता: 222, मानस नगर, शाहगंज, आगरा, 282010
ashokdgmce@gmail.com 2. ashokrawat2222@gmail.com
फोन: नोएडा: 09013567499 , आगरा: 09458400433

आशीष दीक्षित : तुम मोहब्बत को छुपाती क्यूं हो













तुम मोहब्बत को छुपाती क्यूं हो

दिल भी है दिल में तमन्ना भी है
कुछ जवानी का तकाज़ा भी है
तुम को अपने पे भरोसा भी है
झेंप कर आंख मिलाती क्यूं हो
तुम मोह्ब्बत को छुपाती क्यूं हो

ज़ुल्म तुम ने कोई ढाया तो नही
किसी को बेवजह सताया तो नही
खून गरीबों का बहाया तो नही
यूं पसीने में नहाती क्यूं हो
तुम मोहब्बत को छुपाती क्यूं हो

पर्दा है दाग छुपाने के लिये
शर्म है झूठ पे छाने के लिये
इश्क इक गीत है गुनगुनाने के लिये
इस को होंठों में दबाती क्यूं हो

तुम मोहब्बत को छुपाती क्यूं हो

आशीष दीक्षित