Sunday, December 3, 2017

शहरयार

भूली-बिसरी यादों की बारात नहीं आई
इक मुद्दत से हिज्र की लम्बी रात नहीं आई

आती थी जो रोज़ गली के सोने नुक्कड़ तक
आज हुआ क्या वो परछाईं साथ नहीं आई

मुझ को तआ'क़ुब में ले आई इक अंजान जगह
ख़ुश्बू तो ख़ुश्बू थी मेरे हाथ नहीं आई

इस दुनिया से उन का रिश्ता आधा-अधूरा है
जिन लोगों तक ख़्वाबों की सौग़ात नहीं आई

ऊपर वाले की मन-मानी खलने लगी है अब
मेंह बरसा दो-चार दफ़ा बरसात नहीं आई

शहरयार

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